शुक्रवार, 25 मार्च 2011

हार

 ( मुझे भगत जी सिरीज़ की दूसरी कड़ी प्रस्तुत करनी थी, आधी से ज़्यादा लिख भी चुका हूँ ,परन्तु कल कुछ ऐसी बातें हो गयीं कि मुझे आज से पैंतीस साल पुरानी एक घटना याद आ गई और मैं भगत जी की अगली कड़ी पूरी करने से पहले इसे लिखने बैठ गया.शायद कोई इसे पसंद करे. बस एक ही डर है कि कहीं कोई गलत अर्थ ना निकाल ले. )

ये बात सन 1975 की है.

मैं अपनी नौकरी के साथ-साथ एक एडवांस-ट्रेनिंग कोर्स भी कर रहा था जिसकी  क्लासिस हफ्ते में तीन दिन शाम को होती थीं जो रात नौ बजे तक चलतीं थीं . ट्रेनिंग-इंस्टिट्यूट कनाट-प्लेस में सुपर बाज़ार के सामने वाले ब्लाक में पहली मंजिल पर था.

 नीचे लीडो रेस्टोरेंट था,जिसमें केबरे डांस हुआ करते थे.

कैबरे डांस देखने के शौकीन,उन दिनों सस्ते ज़माने में,जब हमारी तनख्वाह सिर्फ 303 रूपये प्रति माह होती थी,और दिल्ली की सड़कों पर पीने के ठन्डे पानी का एक गिलास सिर्फ पांच पैसे में मिलता था,बीस रूपये रेस्टोरेंट की एन्ट्री फीस ख़ुशी-ख़ुशी भरते थे.


हम लोग उन दिनों  कालका जी में रहते थे.मैं ऑफिस से कनाट-प्लेस के लिए अपने लेम्ब्रेटा स्कूटर पर सीधे ही निकल जाता था. हालांकि मेरा स्कूटर चार साल पुराना था, पर मैं उसे हमेशा एकदम चाक-चौबंद रखता था ,एक किक लगाओ खट्ट से स्टार्ट , जिसे हम उन दिनों बड़े गर्व से हाफ-किक स्टार्ट स्कूटर कहते थे.


जिस वाकये का जिक्र मैं करने जा रहा हूँ उसे याद करके मुझे आज भी , इंसान की फितरत पर हैरानी ही होती है . 


उन दिनों दिल्ली की सड़कों पर ज़्यादा भीड़-भाड़ नहीं होती थी.रात के दस बजते-बजते तो दिल्ली सो ही जाया करती थी.


अक्टूबर का महीना था, नजदीक आती सर्दी के क़दमों की आहट सुनाई देने लगी थी.


मैं और मेरा एक और साथी क्लासिस ख़त्म होने के बाद जीना उतर कर नीचे आये. लीडो  की खिड़की पर एन्ट्री टिकट  लेने वालों का एक छोटा सा झुण्ड खडा था.तकरीबन आठ-दस लोग रहे होंगे. रोज़ की तरह इस वक़्त सड़क अकेली पड़ी थी.बीच-बीच में कोई इक्का-दुक्का वाहन उसका अकेलापन झुठलाता हुआ घर्र से निकल जाता था.  


हम दोनों ने बिल्डिंग के पीछे बने स्कूटर स्टैंड से अपने-अपने स्कूटर उठाये और सड़क पार करके पान वाले के खोखे के सामने आन खड़े हुए.


सुपर-बाज़ार की बगल में टेलीफोन एक्सचेंज का भवन है, टेलीफोन एक्सचेंज से जुडी फायर ब्रिगेड की बिल्डिंग है और फायर ब्रिगेड की बगल से होती हुई एक पतली गली गयी है. ( ये गली आगे किधर पहुंचाती है, इस चक्कर  में मत पड़िए,हम कौनसा दिल्ली का जुगराफिया पढने बैठे हैं. ). फायर ब्रिगेड  के दो बड़े-बड़े  गेट हैं, एक  कनाट-प्लेस  की  तरफ और दूसरा  बगल वाली पतली गली की  तरफ. दोनों दरवाजों पर बंदूकधारी  सिपाही चौबीस घण्टे पहरा दे रहे होते हैं. 


पान वाले का खोखा टेलीफोन-एक्सचेंज की दीवार से जुडा इस के गेट के साथ ही था.


क्लासिस ख़त्म होने के बाद घर जाते वक़्त पान वाले का ये खोखा हम दोनों का पक्का अड्डा था.मेरा मित्र हर बार पान वाले से एक सिगरेट खरीदता और स्टैंड पर खड़े स्कूटर पर बैठ कर इत्मीनान से सिगरेट के हलके-हलके कश लेता हुआ धुम्रपान का आनन्द लेता, और मैं उसे आनन्द लेता देख खाली बैठा आनन्दित होता रहता.  


दस-पंद्रह मिनट के इस अन्तराल में हम दुनिया-जहान की बातें करते और सिगरेट ख़त्म होने के साथ अपनी मीटिंग ख़त्म करके स्कूटर को किक मारते और घर की ओर वापिस चल देते.


काफी दिन ये सिलसिला निर्विघ्न चला.


पर फिर एक दिन वो  घटना घट गयी, जिसका जिक्र करने मैं बैठा हूँ . हुआ यूं कि......


हम दोनों अपने-अपने स्कूटर पर बैठे हुए अपने-अपने तरीके से आनन्द ले रहे थे .मेरा मित्र कभी आस्ट्रेलिया और कभी अफ्रीका के नक्शे की शक्ल जैसा धुआं अपने मुंह से उगल रहा था, इतने में एक अच्छे-खासे तन्दरुस्त सेहत वाले सरदार जी, जो चालीस-पैंतालीस के पेटे में रहे होंगे , अपने स्कूटर पर अपनी पत्नी के साथ वहाँ पहुंचे. हम दोनों से थोड़ा सा आगे करके उन्होंने अपना स्कूटर स्टैंड पर लगाया और अपनी पत्नी को प्रतीख्या करता छोड़ , खुद भारतीय परम्परा को निभाते हुए , खोखे की बगल में अंग्रेजों के ज़माने के, नीम के पुराने पेड़ को सींचने के शुभ कार्य को करने के लिए जा खड़े हुए.


मेरा मित्र सरदार जी के इस कारनामे को देख हँस पडा.अभी मेरे मित्र की मुस्कराहट आधे रास्ते में ही थी कि,


'' पकड़ो-पकड़ो , मेरा हार ले के भाग गया, सरदार जी , पकड़ो!!!''


सरदार जी क्या करते , वो तो उस वक़्त कुछ और ही पकड़े खड़े थे.सरदार जी का आधा पेशाब नीम पर और आधा पैंट पर, हाथ से अपने उत्तम अंग को  पैंट के भीतर घुसेड़ते भागे, लीडो के आगे खड़े तमाशबीन खड़े तमाशा देखते रहे, और मैं, 


मैं बता नहीं सकता कि ये सब कैसे और क्योंकर  हुआ, पर अचानक ही उस महिला की गुहार सुनकर मैं जो  एक पल पहले  अपने स्कूटर पर बैठा हँस रहा था दूसरे ही पल, सरदार जी की पत्नी का हार , उनके गले से झपट कर भागते , बदमाश  के पीछे अपने स्कूटर पर भागा.


वो बदमाश दौड़ कर फायर ब्रिगेड के साथ वाली गली में  लुप्त हो गया.मैंने अपने स्कूटर पर भाग कर उसे फायर ब्रिगेड के गली वाले दरवाज़े के सामने पहुँचते तक ही जा लिया . 


मेरे स्कूटर की आवाज़ से ही वो बदमाश ये समझ गया कि वो मेरे से और दूर  नहीं भाग पायेगा,तो फायर-ब्रिगेड के गेट के सामने पहुँच कर वो पलट कर खडा हो गया.


दोनों पैरों को चौड़ा कर, दायें हाथ में आठ-इंच लम्बे फल वाले रामपुरी चाक़ू को लहराते हुए,अपने बदन को दोनों पैरों पर एक ओर से दूसरी ओर झुलाते हुए वो बड़ी खतरनाक  मुद्रा बनाए मेरे सामने खडा था ,हार उसने दौड़ते -दौड़ते  ही अपनी पैंट की दायीं जेब में डाल लिया था , जहां से वो थोड़ा बाहर को लटका हुआ साफ़ नज़र आ रहा था.


ये बदमाश कोई बीस-पच्चीस साल के बीच की उम्र का मंझौले क़द का हट्टा-कट्टा नौजवान था.उसकी  खड़े होने की मुद्रा और चाक़ू को लहराने का अंदाज़, उसके खतरनाक इरादों को साफ़ जाहिर कर रहे थे.


'' भाग जा,नहीं तो चीर के रख दूंगा, '' वो अपने दांत भींच कर मेरी तरफ एक कदम बढ़ता हुआ फुफकारा.


उसका अंदाज़ बता रहा था कि वो जो कुछ कह रहा था उसे कर गुजरने में उसे कोई हिचकिचाहट नहीं होने वाली थी.


इस बीच सरदारजी और उनकी पत्नी भी मेरे से कुछ दूर मेरे पीछे आन खड़े हुए थे. सरदार जी की पत्नी उस बदमाश को अपनी विनयशील भर्राई हुई आवाज़ में प्रार्थना किये जा रही थी, '' वे भ्रावा, साडे ते रहम कर , मेरा हार मैनू दे-दे ,तेरी बौत मेरबानी होउगी ''. 


और सरदार जी अपनी पत्नी की बात पर पालिश सी चढाते हुए हाथ जोड़ कर उस के सुर में सुर मिलाते हुए बोले जा रहे थे ,'' देख उस्ताद, जो सौ पचास लेने हों ले-ले, पर भाई मेरे, ये हार हमें  वापस दे-दे .''


उधर वो बदमाश इन सब बातों और सामने पंद्रह फुट दूर फायर ब्रिगेड के दरवाज़े पर खड़े बंदूकधारी से बेपरवाह हमें अपने चाकू से चीर देने को आमादा खडा था.


उस बदमाश के चेहरे के बदलते हाव-भाव से मुझे लगने लगा कि ये अब चाक़ू से वार  ज़रूर करेगा तो मैंने बहुत आराम से बिना बदमाश के चेहरे से निगाहें हटाये धीरे से अपने बायें हाथ से स्कूटर का क्लच दबाया और बिना उस बदमाश की निगाहों में आये स्कूटर को फर्स्ट गियर में डाला और इस से पहले कि वो बदमाश कुछ समझ पाता मैंने अपनी दायीं मुट्ठी से स्कूटर के इंजन को फुल रेस दी और बायें हाथ से दबाये हुए क्लच के लीवर को एक-दम से छोड़ दिया.


जो कुछ भी हुआ वो इतनी तेज़ी से हुआ कि जब तक वो बदमाश सम्भल पाता वो ज़मीन पर पडा धूल चाट रहा था.


स्कूटर का अगला पहिया ज़मीन से ऊंचा उठा और मुझे लिए-लिए बड़ी तेज़ी से बदमाश कि टांगों के बीच में जा कर भड़ाक से टकराया.


टक्कर इतने ज़ोरों की थी कि मेरी तैयारी के बावजूद मैं स्कूटर से उछल कर सड़क के किनारे उगी हुई झाड़ियों  में जा गिरा और स्कूटर उस बदमाश को लिए-दिए उस के पेट पर चढ़ा हुआ गुर्रा रहा था और आगे घिसटने की कोशिश में थोड़ा घूम गया था.इस सब में बदमाश की बाईं आँख  के नीचे स्कूटर के हेंडल से ऐसी ज़ोरों की चोट आई थी की वहाँ से खून बहना शुरू हो गया था.


सरदार जी ने यह नज़ारा देखा तो कूद कर आगे आये और मुझे झाड़ियों में से निकालने की जगह तेज़ी से बदमाश के पास पहुंचे और उसकी पैंट की जेब से हार निकाल  कर अपनी पत्नी के पास पहुंचे.


सरदार जी महाराज तेज़ी से बदले इस माहौल से और जल्दी से जल्दी वहाँ से निकल लेने की  अपनी कोशिश में इतने बौखलाए हुए थे कि उन से स्कूटर को स्टार्ट करने के लिए ठीक से किक भी नहीं मारी जा रही थी,ज्यों-त्यों करके उन्होंने अपना स्कूटर स्टार्ट किया और अपनी पत्नी को पीछे बिठा वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गए. मैं उनका मददगार पीछे मरा या जिया इसकी उस रब्ब के बन्दे ने जानने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं की.उसका काम वाहगुरू सच्चे बादशाह ने बहुत अच्छी  तरह और बड़ी खूबसूरती से निपटा दिया था, अब उसे किसी दूसरे के मरने-जीने की परवाह नहीं थी.


मैं हैरान था और आज तक हैरान हूँ कि वो कैसा गुरु का सिख था जो अपने मददगार को बीच मंझधार में छोड़ कर भाग खडा हुआ था,जबकि गुरु का सिख तो दूसरों की मदद करने में अपनी जान की बाज़ी लगाने से भी नहीं हिचकिचाता. 


मैं हांफता-कांखता बड़ी मुश्किल से झाड़ियों में से बाहर निकला.किसी तरह जोर लगा कर और भी मुश्किल से स्कूटर को सीधा किया,और उसे स्टैंड पर खडा किया.


वो बदमाश लड़का अपने दोनों हाथों से  अपनी बाईं आँख को दबाये चिल्लाये जा रहा था ,''मार दिया रे, मेरी आँख फोड़ दी रे ,'' वगेरह-वगेरह 


उसकी आँख-वाँख कुछ नहीं फूटी थी,पर आँख के नीचे लगी गहरी चोट से बहते खून का वो भरपूर फायदा उठाना चाह रहा था.


इतने में मेरे मित्र की आवाज़ आई ,'' भाई साहब, आ जाओ , खामखा अपना वक़्त और ज़्यादा बर्बाद मत करो , चलो यहाँ से ''.


मैंने अपना स्कूटर स्टार्ट किया, जो कि इस बार आधी किक में नहीं, दस-पंद्रह किक मारने के बाद कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से  स्टार्ट हुआ.


मैं स्कूटर लिए  पंद्रह फुट दूर खड़े उस बंदूकधारी के पास पहुंचा और उससे कहा ,'' तेरे सामने इतना बड़ा हादसा हो गया और  तू बुत बना खडा हुआ तमाशा देख रहा है,अगर वो बदमाश मुझे मार डालता तो तू क्या करता ?''


बंदूकधारी बोला, '' जाओ बाबू जी , खैर मनाओ और अपने घर जाओ ,मुझे लेक्चर देने कि ज़रुरत नहीं ,अरे वो सरदार तो आपकी मदद को आगे ना बढ़ा जिसके लिए आपने अपनी जान खतरे में डाली,मैं तो फिर अपनी ड्यूटी  पर खडा हूँ, फ़ालतू के पंगे लेने के लिए नहीं ''.


मैंने उससे इसके आगे कोई बात करना फजूल समझा और वापिस घर की तरफ चल दिया. थोड़ी दूर जाकर ही मैं रुक गया,मेरी आत्मा ने ये मंजूर ना किया की मैं उस बदमाश को यूं ज़ख़्मी हालत में बेसहारा छोड़ कर चल दूं,चाहे वो कितना भी बदमाश क्यों ना हो मुझे लगा की मुझे उसको डाक्टरी सहायता ज़रूर दिलवानी चाहिए.


मुझे रुकता देख मेरे मित्र ने रुकने का कारण पूछा.मेरे द्वारा मेरा विचार जान कर मेरा मित्र चिढ गया और बोला, '' आपका  दिमाग  खराब हो गया है क्या , पहले ही फजूल के चक्कर  में पड़कर खामखाह इतना टाइम बर्बाद हो चुका  है ,अब रुकिए  नहीं और घर चलिए .''


मैंने कहा,''जहां इतनी देर हो गई है , थोड़ी सी और सही ,पास में ही तो विलिंग्टन हस्पताल है ,वहाँ उसे छोड़कर हम अपने घर को चल पडेंगे ''.


पर मेरे मित्र को मेरी बात बहुत नागवार गुजरीऔर वो मेरे से बिना कुछ और बात किये मुझे वहीं सड़क पर ही छोड़ कर अपने घर की ओर लौट पडा.


 मैं वापिस घटना स्थल पर पहुंचा. वो ज़ख़्मी बदमाश वहाँ से गायब था.


 जब मैंने उस के बारे में बंदूकधारी से पूछा,तो वो हंसने लगा और बोला, ''बड़े भोले हो बाबू जी , अरे वो तो तुम्हारे जाते ही यहाँ से भाग लिया था.मामूली चोट थी , जान छुडाने के लिए खामखाह ड्रामे कर रहा था.''


खैर जो भी हो, कम से कम मेरी आत्मा पर से तो बोझ हट गया  था.


मैं ख़ुशी-ख़ुशी अपने शरीर पर आईं खरोंचों को लिए घर पहुंचा.




( यहाँ मैंने न तो अपने कार्यालय का नाम लिया है और ना ही अपने मित्र का.यह सब मैंने अपने मित्र को शर्मिन्दा होने से बचाने को किया है जो ज़रुरत के वक़्त सिर्फ तमाशबीन बना खडा रहा. )




 यह घटना हमें क्या कहती है ?  क्या मैं गलत था ? क्या आइन्दा मेरे बच्चे 
किसी की मदद करना बेवकूफी भरा काम समझेंगे ? या ये सारे सवाल सिरे से ही बेमानी हैं ?


 मुझे पाठकों की प्रतिक्रया की प्रतीख्या रहेगी.




धन्यवाद.


























शनिवार, 19 मार्च 2011

भगत जी--1

भगत जी ,

पूरा नाम राज वर्मा , अपने माता-पिता की इकलौती संतान.    

भगत जी और मैं चार साल, यानि नौवीं क्लास  से लेकर बारहवीं क्लास तक सहपाठी रहे थे.चार साल हमारी दोस्ती बिना किसी विघ्न-बाधा के बड़े प्रेम से चली ,चली क्या,यदि मैं कहूं कि दौड़ी तो भी कुछ गलत नहीं होगा.

उत्तर प्रदेश में मुज़फ्फर नगर के पास एक छोटे से कसबे में जब मेरे पिता ट्रांसफर होकर पहुंचे तो मैं आठवीं कख्या पास कर चुका था और नौवीं कख्या में दाखिल होना था.

सन 1955 में,यानी आज से पचपन-छप्पन साल पहले भी ,वहाँ ,उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कसबे में ,लड़के-लडकियां एक ही क्लास में इकट्ठा पढ़ते थे, जबकि कालेज की हर क्लास में गाँवों से आने वाले छात्रों की संख्या अधिक होती थी.

मेरा दाखिला जिस 10+2 कालेज में करवाया गया उसकी दो शाखाएं थीं.

पहली शाखा ठीक शहर के अन्दर थी और यहाँ पहली कख्या से लेकरआठवीं कख्या तक के विद्यार्थी (लड़के-लडकियां ) पढ़ते थे.यह एक तीन मंजिला बन्द इमारत थी. 

दूसरी शाखा कसबे से कुछ की.मी.बाहर बहुत ही विस्तृत ख्येत्र में फेली हुई थी.यहाँ नौवीं से लेकर बारहवीं तक की क्लासिज़ होतीं थीं.विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार विज्ञान,कृषि,कामर्स या आर्ट्स विषय लेते थे.किसी भी विषय में दाखिले के लिए आजकल जैसी मारा-मारी नहीं होती थी.


इस कालेज में विद्यार्थियों के लिए खेल के बड़े-बड़े मैदान ,बहुत व्यवस्थित लेबोरेट्रीज़ और एक बड़ी समृद्ध लायब्रेरी भी थी.कुल मिलाकर यह एक आदर्श विद्यालय थाऔर हम सभी विद्यार्थियों को अपने विद्यालय से बहुत प्रेम था.

मेरा नाम नौवीं कख्या के जिस सेक्शन में लिखा गया था उसमें शायद तकरीबन  तीस बच्चे रहे होंगे,जिनमें से छः लडकियां भी थीं.मुझे छोड़कर मेरे सैक्शन के बाक़ी सभी विद्यार्थी कालेज की शहर के अन्दर स्थित पहली शाखा से आठवीं पास करके आये थे,यानि सब करीब-करीब पिछले आठ सालों से इकट्ठे  पढ़ते चले आ रहे थे.इन सब पुराने सहपाठियों में मैं ही एक अकेला एकदम नया रंगरूट  था.

उन दिनों मैं बड़ा शर्मीला और दब्बू किस्म का लड़का था.पर हमेशा अपने दब्बू पन को छुपाने की भरपूर कोशिश किया करता था.मैं जहां से आठवीं तक की पढ़ाई करके आया था वहां लड़कियों से बात करना तो दूर उनके पास से गुज़रना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी , और यहाँ  एक-दो नहीं पूरी छः-छः लडकियां तो मेरी अपनी क्लास में ही थीं.


ग्रामीण पृष्ठभूमि से होने के कारण मेरी क्लास के बाक़ी सभी लड़के मुझसे बहुत मज़बूत और तगड़े थेऔर मेरे हमउम्र होते हुए भी मुझसे बहुत बड़े लगते थे.एक तो बड़े-बड़े लड़के तिस पर क्लास में छः-छःलडकियां , मेरे तो पहले  ही दिन क्लास में घुसते ही छक्के छूट गए.


परन्तु हमेशा की तरह मैंने अपने दब्बू-पने को छुपाये रखने की अपनी भरपूर कोशिश जारी रखी और सब से बढ़िया बात ये हुई कि आधी छुट्टी होने से पहले ही मैंने अपने भावी मित्र का चुनाव भी कर लिया.

यूं तो मेरे मित्र का नाम राज वर्मा था पर हमारी क्लास के बाक़ी सभी सहपाठी उसे बड़े सहज भाव से ' भगत जी ' कह कर बुला रहे थेऔर भगत जी को भी यह संबोधन कोई बुरा नहीं लग रहा था.


भगत जी के चेहरे में बला का आकर्षण था.उसका स्वर्णिम गौर वर्ण , बड़ी-बड़ी आँखें ,सुतवां लम्बी  नाक और गुलाब की पंखड़ीयों  जैसे उसके पतले-पतले होंठ उसके गोल चेहरे को बहुत आकर्षक बनाते थे. जैसा सुन्दर उसका चेहरा था वैसा ही मधुर उसका स्वर था .उन दिनों उस का कद भी साढ़े-चार फुट के आस-पास ही था जो बाद में ग्यारहवीं कख्या पास करते-करते पांच फुट से भी तीन इंच ऊपर हो गया था.


सफ़ेद कुरता-पाजामा उसकी बारहों महीना की सदा-बहार पोशाक थी.सर्दियों में कुरते-पजामे पर काले रंग का बन्द-गले का कोट होता और गर्मियों में कोट की जगह बिना बाजू की गोल गले वाली खद्दर की वास्केट. इन सब के ऊपर सर पर सफ़ेद गांधी टोपी हमेशा सजी रहती थी.


कुल मिला कर भगत जी का व्यक्तित्व लड़कों जैसा कम और लड़कियों जैसा ज़्यादा लगता था.उसे अगर लड़कियों जैसे कपडे पहना दिए जाते तो ये शर्तिया बात थी कि कोई उसके लड़की होने पर शक नहीं कर सकता था.


अब ये बड़े-बड़े लड़कों से घबराहट का असर था या भगत जी के  सौन्दर्य का आकर्षण ,मुझे नहीं मालूम,पर मैं पहले दिन से ही उसे पसंद करने लगा था.
इसीलिए जब स्कूल में पहले ही दिन आधी-छुट्टी में झिझकता,सकुचाता
मैं अपना टिफिन लिए ,उसके पास पहुंचा ,और मुझे झिझकता देख ,उसने मेरा हाथ अपने कोमल हाथों में लेकर ,मुझे खींच कर अपने पास बैठा लिया तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही ना रहा.मैंने बड़े प्रेम से उसके साथ मिल-बाँट कर अपना और उसका टिफिन खाया.मिल-बाँट कर टिफिन खाने का ये सिलसिला आगे भी पूरे चार साल बाकायदा चला.हमारे कालेज में चौबे जी की कैंटीन के बेसन के लड्डू बहुत बढ़िया होते थे.खाना खाने के बाद पहले दिन ही जो बेसन के लड्डू भगत जी के साथ खाने शुरू किये तो पूरे चार साल खाते रहे.


भगत जी के पिता की बड़े-बाज़ार में सुनियारी की दुकान थी.जहां सोने और चांदी के जेवरों की नुमाइश सी लगी होती थी. अच्छे-खासे ज्यूलर को सिर्फ सुनार ही समझा और कहा जाता था,आज तो सोच कर भी बड़ा बुरा लगता है पर उन दिनों ऐसा ही कहा जाता था.दूकान के ऊपर ही इनका निवास भी था.


मुझे अच्छी तरह से याद है ,वो हमारा कालेज में तीसरा ही दिन था.


आधी छुट्टी में हम दोनों ने मिल-बाँट कर खाना खाया ,नल पर जाकर हाथ धोये - पानी पीया और बेसन के लड्डू खाने के लिए चौबे जी की केन्टीन का रुख किया.लेकिन अचानक ही भगत जी को ना जाने क्या सूझा कि आराम से चलने की बजाए दौड़ लगानी शुरू कर दी, भगत जी के पीछे-पीछे मैं भी भागा.


हँसते-खिलखिलाते आगे-आगे भगत जी और पीछे-पीछे मैं.आधे रास्ते में मैंने एक छलांग लगाईं और भगत जी को जा पकड़ा.भगत जी को पीछे से ही पकड़ कर उसकी पीठ अपनी छाती के साथ जोर से भींचने के लिए मैंने अपने दोनों हाथों से भगत जी की छाती को भींचा .उसकी छाती का स्पर्श मुझे बड़ा अलग-अलग सा लगा और मैंने उसे छोड़ दिया.



अरे यार भगत जी, ''क्या बात है,तेरी छाती तो बड़ी नरम-नरम है?''मैंने हँसते हुए भगत जी को कहा.


परन्तु भगत जी बिना कुछ कहे अनमने से चुप-चाप वापिस क्लास की तरफ मुड़ गए.मैं हैरान होकर  उसे आवाज़ देता हुआ उसके पीछे-पीछे चल पडा .सामने से शरद और शैली चले आ रहे थे.दोनों जुड़वां भाई-बहन थे और हमारी ही क्लास में पढ़ते थे.


'' भगत जी को क्या हुआ ?'' शरद ने मुझे बीच में ही रोकते हुए पूछा.


मैंने हैरान होते हुए सारी बात बताई .


मेरी बात सुनकर शैली ने हँसते हुए मुंह घुमा लिया और शरद मेरा मजाक सा उडाता हुआ बोल उठा , '' वाह बेटा, पहले शरारत करते हो और फिर भोले बनकर दिखाते हो.'' 


'' क्या बकते हो ,मैंने कौनसी शरारत की है ?'' शरद को दोनों कन्धों से पकड़ कर हिलाते हुए मैंने पूछा.
                                     
शरद ने एक पल को मुझे घूर कर देखा और फिर मेरा हाथ पक़ड कर  मुझे शैली से दूर ले गया,और मेरे सर पर बम सा फोड़ते हुए बोला,


'' भगत जी  लड़की  है.''


'' क्या ??? '' मेरा मुंह फटा का फटा रह गया. '' पर ये ,ये तो --ल  ल लड़का - - - '' मैं हकला गया 


''  जी नहीं ,ये ल ल लड़का नहीं है, ल ल लड़की है,'' शरद मुझे चिढाता हुआ सा बोला. 


'' पर उसके छोटे-छोटे से कटे हुए सर के बाल ,उसके कपडे , तुम सब का उसके साथ ,और खुद उसका सब के साथ  लड़कों की तरह बर्ताव करना, ये--ये सब क्या है ? ''मैं हैरान होता हुआ बोला.


'' तू अभी नया-नया है न , इसलिए नहीं जानता, वरना सारा शहर जानता है कि भगत जी लड़का नहीं एक लड़की है और उसकी माँ ने उसे बचपन से ही लड़कों की तरह रखा और बड़ा किया है.'' शरद मेरी हैरानी दूर करने की बजाय बढाता हुआ बोला.


'' पर ऐसा क्यों ? '' मैं पूछे बिना ना रह सका.


'' क्योंकि भगत जी की माँ किसी जिस्मानी वजह से दोबारा माँ नहीं बन सकती थी जबकि उसे बेटे का बहुत चाव था ,इसलिए अपना चाव पूरा करने के लिए उसने अपनी बेटी को जिसका कि नाम राज था, राज वर्मा के नाम से बेटे कि तरह पालना शुरू कर दिया,  सिम्पल .''


पर मेरे लिए ये इतना सिम्पल नहीं था.


मुझे तो ऐसा लगा जैसे मुझ से कुछ छीन लिया गया हो.मेरी ताज़ी-ताज़ी दोस्ती मुझे ख़त्म होती नज़र आने लगी थी.


मेरा उदास चेहरा और रोनी सूरत देख कर शरद भी गंभीर हुए बिना ना रह सका और मुझे दिलासा सा देता हुआ बोला, '' परेशान मत हो यार , तुने जानबूझकर कोई  बदतमीजी तो की नहीं , जो भी हुआ अनजाने में हुआ और ये बात भगत जी भी समझता  है , और अगर कहीं कोई ग़लतफ़हमी रह गई तो मैं और शैली उससे बात करेंगे , अभी तू चल क्लास को देर हो रही है .''


मैं शरद और शैली के साथ क्लास में चला तो आया पर मेरी किसी से भी निगाहें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.मैं चुपचाप अनमना सा बैठा खामखा बसते में से कोई सी भी किताब या कापी निकालने और फिर उसे वापिस बसते में डालने लगा.


बाक़ी सब बच्चों के साथ-साथ भगत जी ने भी मेरी परेशानी भरी हालत को देखा और समझा. हो सकता है कि बाक़ी सब तो शायद मन ही मन मेरा मजाक भी उड़ा रहे हों पर भगत जी ने मेरी परेशानी को बहुत गंभीरता से लिया.


ज्यों ही छुट्टी की बैल हुई, तो टीचर जी के क्लास से बाहर जाते ही भगत जी तेज़ी से मेरे पास आया.


भगत जी को मेरे पास पहुंचा  देख क्लास के  बाक़ी सब लड़के-लडकियां भी हमें घेर कर खड़े हो गए. 


मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर भगत जी ने कहा, '' आज का लड्डू तो रह ही गया , बिना लड्डू खिलाये घर भाग जाएगा क्या ?'' और सारी क्लास की मिलीजुली हंसी में मेरी परेशानी अपने-आप ही गुम  हो गई.


'' भगत जी वास्तव में ग्रेट है,'' मैंने मन ही मन सोचा और फिर उस से कहा,
''इस वक़्त तक तो, तुझे भी मालूम है, सारे लड्डू ख़त्म हो जाते हैं,तो फिर कल डबल खायेंगे ,अभी घर चलते हैं.'' और रोज़ की तरह सब बच्चों के साथ हम दोनों कालेज से घर की तरफ  चल पड़े.


उस दिन से लेकर बारहवीं की फाइनल परीख्या होने तक ,पूरे चार साल हम दोनों बड़े सहज रूप से अभिन्न मित्रों के रूप में रहे.


परीख्या का परिणाम आया ,भगत जी ने बारहवीं की परीख्या विज्ञान के विषयों के साथ 82% अंक लेकर पास की थी. 

लेकिन परिणाम आने के दो ही दिन बाद उस छोटे से शहर में जैसे बड़ा भारी  तूफ़ान आ गया.

भगत जी अपने घर से गायब .

किसी की कुछ समझ में नहीं आया.

इतने साल लड़कों के बीच लड़कों की ही तरह बेधड़क और बेदाग़ रहने वाली हरदिल अज़ीज़ लड़की ,जिसके लड़की होने का तो किसी को ध्यान भी नहीं आता था ,ना जाने अचानक कहाँ गायब हो गई थी.

'' ना जाने जमीन खा गई थी या आसमान ही निगल गया था.'' भगत जी का कहीं कोई सुराग तक न मिला.


बहुत दिन पुलिस चारों ओर बड़ी सरगर्मी से भगत जी की खोज में भाग-दौड़ करती रही.उसके सहपाठी होने के नाते मुझसे और मेरे  दूसरे सहपाठियों से पुलिस ने कई बार ,कभी हमारे घर आकर तो कभी हम लोगों को थाने बुलाकर ,बार-बार पूछताछ की ,लेकिन हमें कुछ मालूम होता तब तो कुछ बताते.पुलिस की सारी भाग-दौड़ बेकार गई.और आखिर थक-हार कर पुलिस भी चुप बैठ गई.


भगत जी के माँ-बाप भी रो-धोकर खून के आंसू पीते हुए धीरे-धीरे बेटे जैसी बेटी के गम को भुलाने की चेष्टा करने लगे.


भगत जी के गायब होने की दुर्घटना घटी 1959 में.

1961 में मेरे पिता जी की ट्रांसफर हो गई दिल्ली. हम लोग भी सारा परिवार उन के पीछे-पीछे दिल्ली आ गए .

मैं भी अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी पर लग गया. और जैसा कि आमतौर पर होता है , सन 1969 में मेरी शादी भी हो गई.


सन 1981 की बात है. मैं अपनी धर्मपत्नी , 10  साल की बेटी और 8 साल के पुत्र  के साथ कनाट प्लेस हनुमान मन्दिर दर्शन करने गया  था .

गर्मियों के दिन थे,परिख्याओं के रिज़ल्ट आने के बाद गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं,भक्तजन बच्चों को साथ लेकर हनुमान जी का शुक्रिया अदा करने आये हुए थे.मंगलवार का दिन होने के कारण मन्दिर में भीड़ होना तो स्वाभाविक बात थी,परन्तु उस दिन जैसे सारी दिल्ली  सलाह बनाकर एक-साथ ही उमड़ पड़ी थी.

किसी तरह धक्कम-धक्का करके हनुमान जी को  '' जय श्री  राम '' बोला और पुजारी ने जो प्रसाद की थाली पकड़ाई वो पकड़ कर जैसे-तैसे मन्दिर से बाहर निकले.प्रसाद खाकर पानी पीया ,जूते पहनकर चलने की तैयारी में थे कि मेरी पीठ पर एक हलकी सी थपकी पड़ी. 



 (होली के शुभ अवसर पर आप सब का अभिनन्दन करते हुए मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है, सब प्रसन्न रहे और स्वस्थ रहे यही कामना भी है.
विशेष रूप से होली के अवसर पर भगत जी--१ हाज़िर है. शायद किसी को पसंद आ जाए इस उम्मीद के साथ,---
--बाक़ी बाद में.)



















































                                                                                                                                                                                                                                                                                                     

मंगलवार, 8 मार्च 2011

महिला दिवस


तो आज महिला दिवस है.
कुछ  वर्ष पहले की बात है, मेरे एक मित्र महोदय अपनी पोती को, उसकी जिद पर, दशहरे के अवसर पर, रावण-दहन का मेला दिखाने  ले जाने को मजबूर हुए.
मजबूर? हाँ मजबूर, असल में भीड़-भाड़ में आना- जाना उन्हें कतई पसंद नहीं.बहुत  परेशानी होती है उन्हें भीड़ और उसके हल्ले-गुल्ले से.

पर मजबूर थे,एक तरफ छः बरस की बच्ची की जिद और दूसरी तरफ बच्ची की दादी यानी उनकी श्रीमती जी की पुरजोर, धमकाने के अंदाज़ में, की जाने वाली मनुहार , ना चाहते हुए भी उन्हें मानना पडा.

अब जाना पड़ा तो उन्होंने जबरदस्ती मुझे भी अपने साथ टांग लिया. 

आग्रह टालना कठिन था अतः पडोसी-धर्म निभाते हुए मुझे भी, मजबूरी में, उनके साथ गाड़ी में बैठना पड़ा. 

बच्ची को मेला घुमाया,उसके साथ जायंट-व्हील के झूले पर भी बैठे पर फिर एक समस्या सामने आन खड़ी हुई.

एक कुल्फी बच्ची को लेकर दी और एक-एक कुल्फी हम दोनों ने थामी और गंभीर समस्या का शायद कोई निदान सूझ जाए ये विचारते हुए कुल्फी की चुस्कियां लेने लगे.


बच्ची की फरमाइश पर कुल्फी का दूसरा राउंड चालू था कि अचानक अपने एक प्रेमी श्री रमेश जी सपरिवार कुल्फी वाले की तरफ बढ़ते नज़र आये.
 उन्हें जब मालूम हुआ कि हम लोग इस गंभीर समस्या में उलझे हुए थे कि
बच्ची को इस भीड़ में दूर खड़े होकर भीड़ के पीछे से रावण-दहन का नज़ारा  कैसे दिखाया जाए तो जैसे उन्होंने गंभीर समस्याओं  का निदान ढूँढने में कुल्फी के महत्व की रख्या करते हुए हम लोगों को अपने साथ आने का निमंत्रण दिया. 

उनके पास वी.वी.आई.पी.बाड़े में बैठने के, पूरे परिवार के लिए,पास थे.

कुल्फी ने बड़ी जल्दी और बड़े आराम से इतनी विकट समस्या का हल यों चुटकी बजाते कर दिया था कि मैं तो कुल्फी का कायल हुए बिना नहीं रह सका और मैंने रमेश जी व  उनके परिवार का साथ देने के लिए एक कुल्फी और खाई.

रमेश जी व उनके परिवार के साथ हम लोग भी वी.वी.आई.पी.बाड़े में पहुंचे.

यहाँ से हर दृश्य साफ़ नज़र आ रहा था.

रमेश जी ने बड़े प्रेम से अपने परिवार के अन्य बच्चों के साथ मित्र महोदय की पोती को भी सबसे आगे वाली पंक्ती में बैठाया.

रावण-दहन से पहले की रामलीला दिखाई जा रही थी, कुछ बच्चे जो हनुमान जी की सेना के बन्दर बने हुए थे,हाथ में गदा लिए उछल-कूद कर रहे थे . सब लोग चारों ओर व्याप्त  हर्ष और उल्लास के वातावरण का आनंद अपने-अपने बच्चों को खुश देखकर और भी अधिक उठा रहे थे.

इतने में हमारे बाड़े के पास ही बने स्टेज के पीछे हलचल हुई.

रामलीला कमेटी के सेक्रेटरी महोदय व कमेटी के अन्य सदस्य एक अच्छे-खासे मोटे-ताज़े सज्जन को साथ लिए स्टेज पर आये और फिर उन सज्जन के स्वागत का सिलसिला प्रारम्भ हो गया.

 रामलीला कमेटी के सदस्यों के अतिरिक्त, राम,लख्यमन,सीता व रावण की भूमिका करने वाले अभिनेताओं ने भी उनका फूल-मालाओं द्वारा स्वागत  किया.
मैंने यह बात विशेष रूप से भाँपी कि रमेश जी की विदूषी पुत्रवधू ,जो एक महिला कोलेज में अंग्रेजी साहित्य की प्रोफ़ेसर थी, इन सज्जन के स्टेज पर आने के बाद से इतनी  ज्यादा बैचैन नज़र आ रही थी कि अपनी कुर्सी पर आराम से बैठ नहीं पा रही थी. 

मुझ से रहा नहीं गया तो मैंने अपने मन की बात रमेश जी को कही. रमेश जी बड़े शुष्क स्वर में बस इतना ही बोले,'' बाद में बात करते हैं.'' 

उनकी कुछ अतिरिक्त गंभीर मुख-मुद्रा देख कर  मुझे चुप रह जाना पड़ा. 

कार्यक्रम का मुख्य दृश्य उपस्थित हुआ. श्री राम का अभिनय कर रहे पात्र ने रावण के पुतले पर जलता तीर चला कर रस्म पूरी की और उसके बाद फूल-मालाओं से सजा एक विशेष धनुष लाया गया जिस पर तीर चढ़ा कर उन सज्जन से  रावण के पुतले पर चलवाया गया और रावण मार दिया गया,हर साल की तरह फिर-फिर ज़िंदा होने के लिए.

आतिशबाजियों के शोर से आसमान गूँज उठा.

बच्चे बहुत खुश थे और हम उनको खुश देख कर खुश थे.

कार्यक्रम समाप्त हुआ , रमेश जी का हार्दिक धन्यवाद कर हम लोग घर लौटे.

मित्र महोदय की  पत्नि अपनी इकलौती पोती को ख़ुशी के मारे नाचता  पा कर बहुत खुश थी अतः उसने त्यौहार के अवसर पर बनाए गए विशेष पकवान खिलाकर हम दोनों को नवाज़ा.

सब कुछ अच्छे से निपट गया,बढ़िया विशेष पकवान भी पेट में पहुँच गए,परन्तु मुझे रमेश जी की अतिरिक्त गंभीर मुख-मुद्रा और उनकी, शालीनता कि प्रतिमूर्ति, पुत्रवधू की बेचैनी बेचैन किये दे रही थी.

घर पहुंचा तो मुझे अनमना सा पाकर श्रीमती जी भी कारण जानने का  आग्रह करने लगीं.

उनके आग्रह का किसी तरह निराक़रण करके मैंने रमेश जी का फोन मिलाया,और उनसे उनके घर पर उसी समय मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की.

उन्होंने शिष्टाचारवश अपनी प्रसन्नता जताई और मुझे आने को कहा.

उनके घर पहुँच कर बिना इधर-उधर की बात किये मैंने अपने मन की बात कही.

रमेश जी बोले,''भाई,बुरा मत मानना,बात कुछ ऐसी थी कि उस समय जानबूझकर मैंने उसे बढ़ाना ठीक नहीं समझा,तुम बैठो मैं अन्दर तुम्हारे आने की खबर करता  हूँ, फिर इत्मीनान से बैठकर तुम्हें सारी बात बताता हूँ.''

''आप तक़ल्लुफ़ में ना पड़ें मैं घर से खा-पी कर चला था,यों भी त्यौहार का दिन है तो कुछ ज़्यादा ही हैवी हो चुका है.'' मैंने उन्हें रोकने की कोशिश करते हुए कहा.

''अरे यार चाय तो फिर भी चलेगी ,'' ये कहते हुए रमेश जी घर की बैठक से निकल कर ड्योढ़ी पार करते हुए घर के अन्दर चले गए.


मैं पीछे बैठा अपनी  लेखक  बुद्धि को कोसने लगा जो हर वक़्त हर किसी के फटे में टांग अड़ाए बिना नहीं मानती थी.


रमेश जी अपने हाथ में एक फ़ाइल लिए बैठक में आये और कहने लगे,''मामला ज़रा पुराना पड़ जाने की वज़ह से बहू को फ़ाइल ढूँढने में थोड़ा वक़्त लग गया,माफ़ी चाहता हूँ.'' 

कैसी फ़ाइल ?मैं समझा नहीं?

एक नीले रंग की फ़ाइल मेरे हाथ में पकडाते हुए रमेश जी मुझे समझाते हुए से बोले,''ये फ़ाइल पकड़ो और इस में नत्थी सारे कागज़ात का अच्छी तरह से अध्ययन कर लो.तुम्हारी हर जिज्ञासा का उत्तर तुम्हें इस में मिलेगा.फिर भी अगर कोई प्रश्न मन में रह जाए तो उसका उत्तर देने को मैं हाज़िर हूँ.''

ये तो काफी मोटी फ़ाइल दिख रही है, क्या है इस फ़ाइल में? आप ही बता दीजिये.

''अगर मैं आपको सारी कहानी सुनाने बैठ गया तो सारी रात भले बीत जाए  परन्तु आपके मन के प्रश्न फिर भी अनुत्तरित ही रह जायेंगे,इसलिए आराम से कुर्सी छोड़ कर सोफे पर जम जाओ,चाय आ रही है ,चाय की चुस्कियां लेते हुए शुरू हो जाओ ''

''ऐसी बात है तो अगर आपको ऐतराज़ न हो ,तो ये फ़ाइल मैं अपने साथ अपने घर ले जाता हूँ ,बिस्तर में घुस कर इत्मीनान से पढूंगा,और सुबह होते ही आपकी फ़ाइल आपको वापिस पहुंचा दूंगा.''

आप इत्मीनान से फ़ाइल पढ़िए.यहाँ बैठकर पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़िए ,देर-सवेर का कोई संकोच ना करें,इसे भी अपना ही घर समझें और अगर अपने ही घर फ़ाइल ले जाना  चाहते हैं तो आप मालिक हैं,हमें उसमें भी कोई ऐतराज़ नहीं .और हाँ ,फ़ाइल जब आप  मुनासिब समझें तब वापिस भिजवा दीजिएगा.
इतने में नौकर चाय और उसके साथ खाने का बहुत सा सामान लेकर आ गयाऔर मेरे लाख मना करने पर भी रमेश जी ने मुझे चाय पिलाकर  ही छोड़ा.

घर आकर मैं बिस्तर पर पहुँचने की जगह अपनी छोटी सी स्टडी में जा घुसा और बिना वक़्त गवांये फ़ाइल खोल कर पढने बैठ गया.

मैं ज्यों-ज्यों फ़ाइल पढता गया मेरी हैरानी बढती ही गई .

रात शायद मैं नौ बजे फ़ाइल खोल कर पढने बैठा था और आखिर में जब मैं फ़ाइल के हर -एक पन्ने का अध्ययन करने के बाद, फ्रेश होने के इरादे से, वाशरूम की तरफ मुड़ा तो मेरी नज़र  मेज़ पर रखी घडी पर पड़ी, सुबह होने वाली थी,घडी छः बजा चुकी थी.यानी मैं पिछले नौं घंटों से भी ज्यादा समयसे  फ़ाइल में डूबा हुआ  था.

पूरी फ़ाइल पढने के बाद मेरा मन हताशा और दुःख से भर गयाथा .मैं समझ चुका था कि क्यों  रमेश जी की पुत्रवधू उन सज्जन को देख कर बेचैन हो गई थी,और अब क्यों उन्हें फ़ाइल वापिस लेने की जल्दी नहीं थी.

फ़ाइल हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों की कतरनों से भरी पड़ी  थी ,जिन्हें बड़ी सफाई से संभाल कर फ़ाइल में लगाया गया था.कतरनों के बीच-बीच में कुछ कागजों पर बड़े सुडौल अख्यरों में कुछ नोट्स घटनाओं पर टिपण्णी करते हुए लिखे हुए थे. नोट्स शायद रमेश जी की पुत्रवधू के हाथ के लिखे हुए थे.और शायद पूरी फ़ाइल ही उनकी पुत्रवधू द्वारा तैयार की गई थी.

पूरी  फ़ाइल का ब्यौरा यदि देने बैठ गया तो यह चिट्ठा बहुत लंबा होकर कई किश्तों में बिखर जाएगा,जबकि  मैं इसे आज-अभी महिला दिवस की रात्री में पूरा करके पोस्ट कर देना चाहता हूँ.अतः संख्येप में सारी बात कहता हूँ.

फ़ाइल के अनुसार :-

नगर के जाने-माने उद्योगपति श्री हीरा लाल जो नगर में सेठ जी के नाम से ज्यादा जाने जाते थे,महिला कालेज के वार्षिक अधिवेशन में अध्यख्य रूप में आमन्त्रित किये गए थे.
कालेज की,अंग्रेजी साहित्य में, एम.ए.फाइनल की छात्रा, कु.ज्योत्स्ना जहां पढ़ाई में बहुत मेधावी थी,वहीं रूप-सौंदर्य और भरत-नाट्यम  नृत्य में भी बहुत बढ़-चढ़ कर थी.

सेठ जी की कुदृष्टि इस सौंदर्य की प्रतिमूर्ति पर पड़ी  तो वो उसे देखते ही रह गए.

सेठ जी जब कालेज के उत्सव से वापिस लौटे तो उनका कामातुर मन उस रूप सुंदरी को पाने के लिए बेचैन था.

शैतान का दिमाग,लगा तरकीबें लड़ाने.और आखिर में उन्हें एक सिक्केबंद तरकीब सूझ ही गई.

 ज्योत्स्ना शाम को नगर के नृत्य एवं संगीत विद्यालय में बच्चों को नृत्य की शिख्या देने के लिए साइकिल पर जाती थी.

दो दिन बाद रोज़ की तरह जब ज्योत्स्ना विद्यालय से लौट रही थी,फ़िल्मी स्टाइल में एक कार उसकी साइकिल की बगल से ऐसे गुजरी कि ज्योत्स्ना भर-भरा कर सड़क पर आ गिरी.उसे मामूली खरोंचें आयीं.

राह चलते लोग इकट्ठे होने लगे.कार से एक शरीफ सा दिखने वाला बुज़ुर्ग व्यक्ति निकला,उसने अपने ड्राइवर कि लापरवाही के लिए उसे काफी कोसा और इस सब के लिए सब से माफ़ी मांगी.

ज्योत्स्स्ना के बार-बार कहने के बावजूद कि उसे कोई गंभीर चोटें नहीं आई थीं,बुजुर्गवार नहीं माने.उनका ये कहना कि यदि इंजेक्शन नहीं लगवाया गया तो ये मामूली खरोंचें टिटनस जैसी खौफनाक बीमारी  भी  पैदा कर सकती थीं,मौजूद सब लोगों को जंचा. 

बुजुर्गवार ने सुझाव दिया  कि मोड़ मुड़ के मेन रोड पर थोड़ी दूर पर ही जो डाक्टर भगत राम का दवाखाना है वहाँ चले चलते हैं,ताकी ज्योत्स्ना को इंजेक्शन लगवा कर उसके घर छोड़ा जा सके.उसने वहाँ इकट्ठा  हुए लोगों से प्रार्थना की कि कुछ लोग उनके साथ डाक्टर के दवाखाने तक भी चले चलें,तो बड़ी मेहरबानी होगी.

कोई आगे ना बढ़ा.
बुज़ुर्ग ने फिर जिद की तो एक सज्जन जिनका घर डाक्टर के दवाखाने के पास था साथ चल पड़े .

ज्योत्स्ना की साइकिल कार की डिक्की में रखी गयी और ज्योत्स्ना को लेकर गाडी बाकायदा डाक्टर के दवाखाने में पहुँची.वहाँ उसको फर्स्ट एड देकर इंजेक्शन भी लगाया गया.

दवाखाने से बाहर आकर वो सज्जन भी आश्वस्त हो गयेऔर उन्होंने ज्योत्स्ना  के घर तक जाने की  बिलकुल भी ज़रुरत नहीं महसूस की.आखिर कार वाले बजुर्ग ने पूरी इमानदारी से ज्योत्स्ना का इलाज भी तो करवाया था,फिर एक शरीफ बुज़ुर्ग पर शक करने का क्या काम.

उन सज्जन ने प्यार से ज्योत्स्ना के सर पर हाथ फेरा और आशीर्वाद देकर अपने घर का रस्ता लिया.

मेन रोड पर भागती कार ज्योत्स्ना के घर की ओर न जाकर विपरीत दिशा में भागी जा रही थी ,यह बात जब तक ज्योत्स्ना की समझ में आई बहुत देर हो चुकी थी.


दस दिन नगर में खूब गुल-गपाड़ा मचता रहा, पुलिस वाले यही कहते रहे कि वो पूरी कोशिश कर रहे हैं पर कुछ हाथ ना आया.गरीब स्कूल मास्टर कि बेटी ज्योत्स्ना को ज़मीन खा गयी थी या आसमान निगल गया था .
और फिर नगर में जैसे भूचाल ही आ गया.

दसवें दिन शाम को सेठ हीरा लाल के फ़ार्म के कूएँ से बदबू आने लगी और फिर दो घंटे की मेहनत के बाद कूएँ में से पुलिस ज्योत्स्ना की फूली हुई लाश निकलवा पाई.

ज्योत्स्ना की लाश की पहचान उसके बाएं हाथ के पीछे गुदे ॐ के निशान और उसके होठों के ऊपर विधाता द्वारा जड़े तिल से हुई थी.

सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि ज्योत्स्ना के शरीर पर उसका वो सलवार-कमीज़ का जोड़ा नहीं था जिसे पहन कर वो घर से निकली थी बल्कि उसके शरीर पर सेठ हीरा लाल की धर्म पत्नि  शान्ति देवी की  सलवार-कमीज़ का जोड़ा था.ये कपडे सेठ जी की पत्नि के ही थे इस बात का पता कपड़ों पर लगाए जाने वाले लांड्री के निशान से लगा था.

सेठ हीरा लाल को ज्योत्स्ना की हत्या की साज़िश में शामिल होने के शक के आधार पर गिरफ्तार ज़रूर किया गया,परन्तु अदालत में सेठ जी के खिलाफ पुलिस ने कोई ठोस मामला नहीं पेश किया.रमेश जी की पुत्रवधू अपनी प्रतिभाशाली विद्यार्थी के लिए जितनी हो सकी, अपने पति को साथ लेकर, भागदौड करती रही.पर कुछ ना हो सका. 

ज्योत्स्ना की आत्मा को इन्साफ नहीं मिला.ज्योत्स्ना के हत्यारों को कोई सज़ा नहीं मिली.

सेठ हीरा लाल अदालत से ससम्मान बरी हो गए.

समय बीतता गया.नगरवासी पुरानी बातें भूलते गए,और  सेठ हीरा लाल पुनः  प्रतिष्ठित हो गए.

तो ये कारण था कि एक शरीफ खानदान की बहू सेठ हीरा लाल को स्टेज पर देख कर नफरत से बेचैन हो गयी थी.

आज उस दशहरे को गुज़रे बहुत साल बीत गए हैं.

सेठ हीरा लाल जी राज्य सरकार में मंत्री के पद पर महिमामंडित हैं.

रमेश जी की पुत्रवधू अपने कालेज की प्रिंसिपल बन चुकी हैं.

घर का पुराना खिदमतगार रग्घू अभी-अभी मुझे एक सुन्दर-सुनहरी अख्यरों  में छपा निमंत्रण-पत्र थमा गया है.

आज नगर के महिला कालेज में  महिला-दिवस, एक उत्सव के रूप में   मनाया जा रहा है.

महामहिम मंत्री सेठ हीरा लाल जी विशेष अतिथि होंगे.

निमंत्रण -पत्र  महिला कालेज की प्रिंसिपल रमेश जी की पुत्रवधू की ओर से 

हस्ताख्यरित है. 

क्या आज भी वो बेचैन होंगी ?

आज फिर मेरा लेखक मन जानने को बेचैन है.

इति ?