शनिवार, 19 मार्च 2011

भगत जी--1

भगत जी ,

पूरा नाम राज वर्मा , अपने माता-पिता की इकलौती संतान.    

भगत जी और मैं चार साल, यानि नौवीं क्लास  से लेकर बारहवीं क्लास तक सहपाठी रहे थे.चार साल हमारी दोस्ती बिना किसी विघ्न-बाधा के बड़े प्रेम से चली ,चली क्या,यदि मैं कहूं कि दौड़ी तो भी कुछ गलत नहीं होगा.

उत्तर प्रदेश में मुज़फ्फर नगर के पास एक छोटे से कसबे में जब मेरे पिता ट्रांसफर होकर पहुंचे तो मैं आठवीं कख्या पास कर चुका था और नौवीं कख्या में दाखिल होना था.

सन 1955 में,यानी आज से पचपन-छप्पन साल पहले भी ,वहाँ ,उत्तर प्रदेश के एक छोटे से कसबे में ,लड़के-लडकियां एक ही क्लास में इकट्ठा पढ़ते थे, जबकि कालेज की हर क्लास में गाँवों से आने वाले छात्रों की संख्या अधिक होती थी.

मेरा दाखिला जिस 10+2 कालेज में करवाया गया उसकी दो शाखाएं थीं.

पहली शाखा ठीक शहर के अन्दर थी और यहाँ पहली कख्या से लेकरआठवीं कख्या तक के विद्यार्थी (लड़के-लडकियां ) पढ़ते थे.यह एक तीन मंजिला बन्द इमारत थी. 

दूसरी शाखा कसबे से कुछ की.मी.बाहर बहुत ही विस्तृत ख्येत्र में फेली हुई थी.यहाँ नौवीं से लेकर बारहवीं तक की क्लासिज़ होतीं थीं.विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार विज्ञान,कृषि,कामर्स या आर्ट्स विषय लेते थे.किसी भी विषय में दाखिले के लिए आजकल जैसी मारा-मारी नहीं होती थी.


इस कालेज में विद्यार्थियों के लिए खेल के बड़े-बड़े मैदान ,बहुत व्यवस्थित लेबोरेट्रीज़ और एक बड़ी समृद्ध लायब्रेरी भी थी.कुल मिलाकर यह एक आदर्श विद्यालय थाऔर हम सभी विद्यार्थियों को अपने विद्यालय से बहुत प्रेम था.

मेरा नाम नौवीं कख्या के जिस सेक्शन में लिखा गया था उसमें शायद तकरीबन  तीस बच्चे रहे होंगे,जिनमें से छः लडकियां भी थीं.मुझे छोड़कर मेरे सैक्शन के बाक़ी सभी विद्यार्थी कालेज की शहर के अन्दर स्थित पहली शाखा से आठवीं पास करके आये थे,यानि सब करीब-करीब पिछले आठ सालों से इकट्ठे  पढ़ते चले आ रहे थे.इन सब पुराने सहपाठियों में मैं ही एक अकेला एकदम नया रंगरूट  था.

उन दिनों मैं बड़ा शर्मीला और दब्बू किस्म का लड़का था.पर हमेशा अपने दब्बू पन को छुपाने की भरपूर कोशिश किया करता था.मैं जहां से आठवीं तक की पढ़ाई करके आया था वहां लड़कियों से बात करना तो दूर उनके पास से गुज़रना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी , और यहाँ  एक-दो नहीं पूरी छः-छः लडकियां तो मेरी अपनी क्लास में ही थीं.


ग्रामीण पृष्ठभूमि से होने के कारण मेरी क्लास के बाक़ी सभी लड़के मुझसे बहुत मज़बूत और तगड़े थेऔर मेरे हमउम्र होते हुए भी मुझसे बहुत बड़े लगते थे.एक तो बड़े-बड़े लड़के तिस पर क्लास में छः-छःलडकियां , मेरे तो पहले  ही दिन क्लास में घुसते ही छक्के छूट गए.


परन्तु हमेशा की तरह मैंने अपने दब्बू-पने को छुपाये रखने की अपनी भरपूर कोशिश जारी रखी और सब से बढ़िया बात ये हुई कि आधी छुट्टी होने से पहले ही मैंने अपने भावी मित्र का चुनाव भी कर लिया.

यूं तो मेरे मित्र का नाम राज वर्मा था पर हमारी क्लास के बाक़ी सभी सहपाठी उसे बड़े सहज भाव से ' भगत जी ' कह कर बुला रहे थेऔर भगत जी को भी यह संबोधन कोई बुरा नहीं लग रहा था.


भगत जी के चेहरे में बला का आकर्षण था.उसका स्वर्णिम गौर वर्ण , बड़ी-बड़ी आँखें ,सुतवां लम्बी  नाक और गुलाब की पंखड़ीयों  जैसे उसके पतले-पतले होंठ उसके गोल चेहरे को बहुत आकर्षक बनाते थे. जैसा सुन्दर उसका चेहरा था वैसा ही मधुर उसका स्वर था .उन दिनों उस का कद भी साढ़े-चार फुट के आस-पास ही था जो बाद में ग्यारहवीं कख्या पास करते-करते पांच फुट से भी तीन इंच ऊपर हो गया था.


सफ़ेद कुरता-पाजामा उसकी बारहों महीना की सदा-बहार पोशाक थी.सर्दियों में कुरते-पजामे पर काले रंग का बन्द-गले का कोट होता और गर्मियों में कोट की जगह बिना बाजू की गोल गले वाली खद्दर की वास्केट. इन सब के ऊपर सर पर सफ़ेद गांधी टोपी हमेशा सजी रहती थी.


कुल मिला कर भगत जी का व्यक्तित्व लड़कों जैसा कम और लड़कियों जैसा ज़्यादा लगता था.उसे अगर लड़कियों जैसे कपडे पहना दिए जाते तो ये शर्तिया बात थी कि कोई उसके लड़की होने पर शक नहीं कर सकता था.


अब ये बड़े-बड़े लड़कों से घबराहट का असर था या भगत जी के  सौन्दर्य का आकर्षण ,मुझे नहीं मालूम,पर मैं पहले दिन से ही उसे पसंद करने लगा था.
इसीलिए जब स्कूल में पहले ही दिन आधी-छुट्टी में झिझकता,सकुचाता
मैं अपना टिफिन लिए ,उसके पास पहुंचा ,और मुझे झिझकता देख ,उसने मेरा हाथ अपने कोमल हाथों में लेकर ,मुझे खींच कर अपने पास बैठा लिया तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही ना रहा.मैंने बड़े प्रेम से उसके साथ मिल-बाँट कर अपना और उसका टिफिन खाया.मिल-बाँट कर टिफिन खाने का ये सिलसिला आगे भी पूरे चार साल बाकायदा चला.हमारे कालेज में चौबे जी की कैंटीन के बेसन के लड्डू बहुत बढ़िया होते थे.खाना खाने के बाद पहले दिन ही जो बेसन के लड्डू भगत जी के साथ खाने शुरू किये तो पूरे चार साल खाते रहे.


भगत जी के पिता की बड़े-बाज़ार में सुनियारी की दुकान थी.जहां सोने और चांदी के जेवरों की नुमाइश सी लगी होती थी. अच्छे-खासे ज्यूलर को सिर्फ सुनार ही समझा और कहा जाता था,आज तो सोच कर भी बड़ा बुरा लगता है पर उन दिनों ऐसा ही कहा जाता था.दूकान के ऊपर ही इनका निवास भी था.


मुझे अच्छी तरह से याद है ,वो हमारा कालेज में तीसरा ही दिन था.


आधी छुट्टी में हम दोनों ने मिल-बाँट कर खाना खाया ,नल पर जाकर हाथ धोये - पानी पीया और बेसन के लड्डू खाने के लिए चौबे जी की केन्टीन का रुख किया.लेकिन अचानक ही भगत जी को ना जाने क्या सूझा कि आराम से चलने की बजाए दौड़ लगानी शुरू कर दी, भगत जी के पीछे-पीछे मैं भी भागा.


हँसते-खिलखिलाते आगे-आगे भगत जी और पीछे-पीछे मैं.आधे रास्ते में मैंने एक छलांग लगाईं और भगत जी को जा पकड़ा.भगत जी को पीछे से ही पकड़ कर उसकी पीठ अपनी छाती के साथ जोर से भींचने के लिए मैंने अपने दोनों हाथों से भगत जी की छाती को भींचा .उसकी छाती का स्पर्श मुझे बड़ा अलग-अलग सा लगा और मैंने उसे छोड़ दिया.



अरे यार भगत जी, ''क्या बात है,तेरी छाती तो बड़ी नरम-नरम है?''मैंने हँसते हुए भगत जी को कहा.


परन्तु भगत जी बिना कुछ कहे अनमने से चुप-चाप वापिस क्लास की तरफ मुड़ गए.मैं हैरान होकर  उसे आवाज़ देता हुआ उसके पीछे-पीछे चल पडा .सामने से शरद और शैली चले आ रहे थे.दोनों जुड़वां भाई-बहन थे और हमारी ही क्लास में पढ़ते थे.


'' भगत जी को क्या हुआ ?'' शरद ने मुझे बीच में ही रोकते हुए पूछा.


मैंने हैरान होते हुए सारी बात बताई .


मेरी बात सुनकर शैली ने हँसते हुए मुंह घुमा लिया और शरद मेरा मजाक सा उडाता हुआ बोल उठा , '' वाह बेटा, पहले शरारत करते हो और फिर भोले बनकर दिखाते हो.'' 


'' क्या बकते हो ,मैंने कौनसी शरारत की है ?'' शरद को दोनों कन्धों से पकड़ कर हिलाते हुए मैंने पूछा.
                                     
शरद ने एक पल को मुझे घूर कर देखा और फिर मेरा हाथ पक़ड कर  मुझे शैली से दूर ले गया,और मेरे सर पर बम सा फोड़ते हुए बोला,


'' भगत जी  लड़की  है.''


'' क्या ??? '' मेरा मुंह फटा का फटा रह गया. '' पर ये ,ये तो --ल  ल लड़का - - - '' मैं हकला गया 


''  जी नहीं ,ये ल ल लड़का नहीं है, ल ल लड़की है,'' शरद मुझे चिढाता हुआ सा बोला. 


'' पर उसके छोटे-छोटे से कटे हुए सर के बाल ,उसके कपडे , तुम सब का उसके साथ ,और खुद उसका सब के साथ  लड़कों की तरह बर्ताव करना, ये--ये सब क्या है ? ''मैं हैरान होता हुआ बोला.


'' तू अभी नया-नया है न , इसलिए नहीं जानता, वरना सारा शहर जानता है कि भगत जी लड़का नहीं एक लड़की है और उसकी माँ ने उसे बचपन से ही लड़कों की तरह रखा और बड़ा किया है.'' शरद मेरी हैरानी दूर करने की बजाय बढाता हुआ बोला.


'' पर ऐसा क्यों ? '' मैं पूछे बिना ना रह सका.


'' क्योंकि भगत जी की माँ किसी जिस्मानी वजह से दोबारा माँ नहीं बन सकती थी जबकि उसे बेटे का बहुत चाव था ,इसलिए अपना चाव पूरा करने के लिए उसने अपनी बेटी को जिसका कि नाम राज था, राज वर्मा के नाम से बेटे कि तरह पालना शुरू कर दिया,  सिम्पल .''


पर मेरे लिए ये इतना सिम्पल नहीं था.


मुझे तो ऐसा लगा जैसे मुझ से कुछ छीन लिया गया हो.मेरी ताज़ी-ताज़ी दोस्ती मुझे ख़त्म होती नज़र आने लगी थी.


मेरा उदास चेहरा और रोनी सूरत देख कर शरद भी गंभीर हुए बिना ना रह सका और मुझे दिलासा सा देता हुआ बोला, '' परेशान मत हो यार , तुने जानबूझकर कोई  बदतमीजी तो की नहीं , जो भी हुआ अनजाने में हुआ और ये बात भगत जी भी समझता  है , और अगर कहीं कोई ग़लतफ़हमी रह गई तो मैं और शैली उससे बात करेंगे , अभी तू चल क्लास को देर हो रही है .''


मैं शरद और शैली के साथ क्लास में चला तो आया पर मेरी किसी से भी निगाहें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी.मैं चुपचाप अनमना सा बैठा खामखा बसते में से कोई सी भी किताब या कापी निकालने और फिर उसे वापिस बसते में डालने लगा.


बाक़ी सब बच्चों के साथ-साथ भगत जी ने भी मेरी परेशानी भरी हालत को देखा और समझा. हो सकता है कि बाक़ी सब तो शायद मन ही मन मेरा मजाक भी उड़ा रहे हों पर भगत जी ने मेरी परेशानी को बहुत गंभीरता से लिया.


ज्यों ही छुट्टी की बैल हुई, तो टीचर जी के क्लास से बाहर जाते ही भगत जी तेज़ी से मेरे पास आया.


भगत जी को मेरे पास पहुंचा  देख क्लास के  बाक़ी सब लड़के-लडकियां भी हमें घेर कर खड़े हो गए. 


मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर भगत जी ने कहा, '' आज का लड्डू तो रह ही गया , बिना लड्डू खिलाये घर भाग जाएगा क्या ?'' और सारी क्लास की मिलीजुली हंसी में मेरी परेशानी अपने-आप ही गुम  हो गई.


'' भगत जी वास्तव में ग्रेट है,'' मैंने मन ही मन सोचा और फिर उस से कहा,
''इस वक़्त तक तो, तुझे भी मालूम है, सारे लड्डू ख़त्म हो जाते हैं,तो फिर कल डबल खायेंगे ,अभी घर चलते हैं.'' और रोज़ की तरह सब बच्चों के साथ हम दोनों कालेज से घर की तरफ  चल पड़े.


उस दिन से लेकर बारहवीं की फाइनल परीख्या होने तक ,पूरे चार साल हम दोनों बड़े सहज रूप से अभिन्न मित्रों के रूप में रहे.


परीख्या का परिणाम आया ,भगत जी ने बारहवीं की परीख्या विज्ञान के विषयों के साथ 82% अंक लेकर पास की थी. 

लेकिन परिणाम आने के दो ही दिन बाद उस छोटे से शहर में जैसे बड़ा भारी  तूफ़ान आ गया.

भगत जी अपने घर से गायब .

किसी की कुछ समझ में नहीं आया.

इतने साल लड़कों के बीच लड़कों की ही तरह बेधड़क और बेदाग़ रहने वाली हरदिल अज़ीज़ लड़की ,जिसके लड़की होने का तो किसी को ध्यान भी नहीं आता था ,ना जाने अचानक कहाँ गायब हो गई थी.

'' ना जाने जमीन खा गई थी या आसमान ही निगल गया था.'' भगत जी का कहीं कोई सुराग तक न मिला.


बहुत दिन पुलिस चारों ओर बड़ी सरगर्मी से भगत जी की खोज में भाग-दौड़ करती रही.उसके सहपाठी होने के नाते मुझसे और मेरे  दूसरे सहपाठियों से पुलिस ने कई बार ,कभी हमारे घर आकर तो कभी हम लोगों को थाने बुलाकर ,बार-बार पूछताछ की ,लेकिन हमें कुछ मालूम होता तब तो कुछ बताते.पुलिस की सारी भाग-दौड़ बेकार गई.और आखिर थक-हार कर पुलिस भी चुप बैठ गई.


भगत जी के माँ-बाप भी रो-धोकर खून के आंसू पीते हुए धीरे-धीरे बेटे जैसी बेटी के गम को भुलाने की चेष्टा करने लगे.


भगत जी के गायब होने की दुर्घटना घटी 1959 में.

1961 में मेरे पिता जी की ट्रांसफर हो गई दिल्ली. हम लोग भी सारा परिवार उन के पीछे-पीछे दिल्ली आ गए .

मैं भी अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी पर लग गया. और जैसा कि आमतौर पर होता है , सन 1969 में मेरी शादी भी हो गई.


सन 1981 की बात है. मैं अपनी धर्मपत्नी , 10  साल की बेटी और 8 साल के पुत्र  के साथ कनाट प्लेस हनुमान मन्दिर दर्शन करने गया  था .

गर्मियों के दिन थे,परिख्याओं के रिज़ल्ट आने के बाद गर्मियों की छुट्टियां शुरू हो चुकी थीं,भक्तजन बच्चों को साथ लेकर हनुमान जी का शुक्रिया अदा करने आये हुए थे.मंगलवार का दिन होने के कारण मन्दिर में भीड़ होना तो स्वाभाविक बात थी,परन्तु उस दिन जैसे सारी दिल्ली  सलाह बनाकर एक-साथ ही उमड़ पड़ी थी.

किसी तरह धक्कम-धक्का करके हनुमान जी को  '' जय श्री  राम '' बोला और पुजारी ने जो प्रसाद की थाली पकड़ाई वो पकड़ कर जैसे-तैसे मन्दिर से बाहर निकले.प्रसाद खाकर पानी पीया ,जूते पहनकर चलने की तैयारी में थे कि मेरी पीठ पर एक हलकी सी थपकी पड़ी. 



 (होली के शुभ अवसर पर आप सब का अभिनन्दन करते हुए मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है, सब प्रसन्न रहे और स्वस्थ रहे यही कामना भी है.
विशेष रूप से होली के अवसर पर भगत जी--१ हाज़िर है. शायद किसी को पसंद आ जाए इस उम्मीद के साथ,---
--बाक़ी बाद में.)



















































                                                                                                                                                                                                                                                                                                     

1 टिप्पणी:

  1. थपकी भगत जी की थी, इतना अन्दाज़ तो लग गया। अगली कडी का इंत्ज़ार है।

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